यह कहानी बहुत पुरानी है। लगभग ५० साल पुरानी तो होगी ही शायद। एक शहर में अब्दुल नाम का एक आदमी रहता था। उम्र कोई ५० - ५५ वर्ष। दिन -रात मेहनत मजदूरी करता था। कमाने का कोई स्थाई जरिया नहीं था । कभी कहीं अनाज ढो दिया तो कभी किसी इमारत के निर्माण कार्य में मजदूरी करने लग जाता।
एक बार ,एक बहुत बड़ी इमारत का निर्माण होना था। अब्दुल भी वहां काम पर लग गया। वहां सभी मजदूरों के रहने की अस्थायी व्यवस्था की गयी थी। लगभग सभी मजदूर अपने परिवार वालों को ले आये थे। लेकिन अब्दुल का कोई परिवार था भी या नहीं कौन जाने !
वह किसी से जरूरत भर ही बात करता और अपने काम लग जाता। सभी सोचते की यह इतना चुप क्यूँ रहता है। शाम को सभी इक्कठे हो कर बातें करते हैं तो यह दूर -दूर ही क्यूँ रहता है। बोलता ही नहीं जाने यह घमंडी है या कोई गम लिए घूमता है।
और अब्दुल …! वह तो बस अपनी ही दुनिया में मग्न रहता , दीन -दुनिया से बेखबर।
ऐसे ही दिन बीते जा रहे थे।
एक दिन बहुत गर्मी थी। मौसम बारिश का था तो बहुत उमस हो रही थी। अब उस ज़माने में कोई पंखे तो होते नहीं थे जो बटन दबाया और चल पड़ते।लाईट भी नहीं थी हर जगह। हर कोई आसमान की तरफ देखते हुए हाथों में हाथों वाला पंखा झुला रहे थे। तभी किसना की नज़र अब्दुल पर पड़ी और देख कर वह हैरान रह गया कि आज अब्दुल ने सर पर बंधा गमछा उतार रखा है और उससे अपना पसीना पौंछ रहा है।
इसमें हैरानी की क्या बात थी। गर्मी तो अब्दुल को भी लगेगी ही , वह भी इन्सान ही तो है ! मगर हैरानी वाली बात तो थी कि कभी भी सर से गमछा ना उतारने वाला अब्दुल आज नंगे सर बैठा है।
हां तो क्या हुआ …. !
लेकिन बात तो हैरानी वाली ही थी। किसना ने रमलू को धीरे से अब्दुल की और इशारा किया तो रामलू के मुख से तो हैरानी भरी चीख जैसे निकल गयी। अब सभी का ध्यान अब्दुल की तरफ था। और उसे घेर कर खड़े हो गए।
किसना बोल पड़ा , " अरे अब्दुल भाई ! यह आपके कानों को क्या हुआ ? आपके तो दोनों कान ही नहीं है ऐसे कैसे है ? क्या ये जन्म से ही नहीं है ?"
सवाल तो किसना ने पूछा था लेकिन सभी जानना चाहते थे की उसके कान क्यूँ नहीं है , कान वाली जगह सिर्फ छेद ही है। क्या कोई हादसा हुआ था उसके साथ !
अब्दुल ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की और शांत आवाज़ में बोला ," ये मेरे कान मेरी बहन ने तोड़ दिए थे। "
" बहन ने कान तोड़ दिए ? मगर क्यूँ ? बहन ऐसा क्यूँ करेगी ? तुमने ऐसा क्या किया था ?" सतबीर ने हैरानी से पूछा।
" अच्छा बताता हूँ , तुम सब लोग आराम से बैठो। " अब्दुल ने एक ऊँची जगह बैठते हुए कहा।
सभी लोग अब अब्दुल को घेर कर बैठे थे कि आखिर यह कानो का रहस्य क्या है ? क्या कोई बहन इतनी निर्दयी भी हो सकती है जो अपने भाई के कान काट डाले ?
अब्दुल धीरे से बोला , " मैं कहाँ जन्मा , कौन मेरे माँ -बाप है , क्या पता ठिकाना है ?मुझे नहीं मालूम।क्या मेरा धर्म है यह नाम ही जाने किसने रख दिया था ! "
" तो यह बहन कहाँ से आयी ? " रमलू बोल पड़ा।
" वह मेरे धर्म की बहन थी। एक वीर हिन्दू स्त्री , जिसने मुझे एक अच्छा इन्सान बनाने में सहायता की। "
वो कैसे भला , यह सभी के मन में प्रश्न था। सभी के चेहरों को भांप कर अब्दुल आगे बोला।
" मेरा कोई भी घर नहीं था तो रहने का ठिकाना भी नहीं था। इधर -उधर की ठोकरों ने मुझे गलत संगत में डाल दिया। मैं चोर बन बैठा। चोर भी पक्का कि कोई पकड़ ही ना सके। इतनी सफाई से अपना काम करता ,कोई सुराग भी नहीं छोड़ता था। दिन में भिखारी का रूप धारण कर के घरों की टोह लेता और रात को मौका पा कर चोरी कर देता।
कुछ दिन चोरी के धन पर ऐश करता और फिर से नए ठिकाने की ओर चल पड़ता। घर बसाने को कभी सोचा ही नहीं। ऐसे ही एक बार मैं एक गाँव में भिखारी बन कर गया और एक घर के दरवाज़े पर गया और देखने लगा की वहां क्या हो रहा है और क्या बात हो रही है टोह लेने लगा।
मुझे उनकी बातों से अंदाज़ा हो गया था कि उस घर में सिर्फ तीन लोग ही हैं। एक अधेड़ स्त्री जो माँ थी उस पुरुष की, जो उससे बतिया रहा था। पास ही आँगन में एक नवविवाहिता स्त्री भी दिखाई दी जो उस युवक की पत्नी होगी। मैंने अनजान सा बनते हुए उन माँ -बेटे की बातों पर कान लगा लिए। वह कह रहा था कि वह रात को खेतों पर ही रह जायेगा , भोर होने पर ही आ पायेगा।
तभी मेरी नज़र उसकी पत्नी पर पड़ी जिसने सोना और चांदी के बने गहने पहन रखे थे। घुटनों से ले कर टखनो तक चांदी ही चांदी और सर पर , गले में और हाथों में जैसे सोने की खान ही ले कर चल रही हो। मैंने सोचा कि यही अच्छा मौका है।यहाँ चोरी कर लूँगा तो फिर कई महीनों तक चोरी नहीं करनी पड़ेगी।
वहां से भीख तो ले ली। रात के इंतजार में गाँव के बाहर एक मंदिर था उसी में बैठ गया।
संध्या होते ही उसी घर में मैं अँधेरे का फायदा उठा कर घर में एक कमरे में छुप गया। रात होने का इंतजार करने लगा।
घर का काम शायद ख़त्म हो गया था क्यूंकि आंगन से आती बर्तनों की खटपट बंद हो चुकी थी। तभी कमरे में आहट हुई और रोशनी भी। मैं एक बड़े से सन्दुक की ओट में एक चारपाई के नीचे छुपा हुआ था। दीपक की हल्की रोशनी में मुझे पैर नज़र आए तो मेरी ख़ुशी का पारावार ही ना रहा। ये पैर तो उसी नवयुवती के थे जिसने सोना और चांदी के आभूषण धारण किये हुए थे।शायद यह उसी का कमरा था। मेरा दिल ख़ुशी से भर गया कि आज तो ऊपर वाला बहुत मेहरबान है।
दीपक एक जगह रख कर उसने अपने जेवर उतारने शुरू किये और चारपाई के चारों पायों में टांग दिए। मुझे और भी ज्यादा ख़ुशी हुई कि मेरा काम तो और भी आसान हो गया। अगर जाग भी गयी तो क्या हुआ , दो मुट्ठी हड्डियाँ ही तो है यह , मार दूंगा ! हत्या करना मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
अब मैं उसके सोने का इंतजार कर रहा था। वह दीपक की लौ धीमी करके लेट चुकी थी। कुछ देर बाद जब मैं आश्वस्त हो गया की वह सो चुकी है तो धीरे से चारपाई के नीचे से बाहर आया और अपने थैले में उसके सारे गहने डाल लिए, चल पड़ा। वह एक बार भी नहीं हिली।
मैं घर से बाहर आ गया और सडक की तरफ चल पड़ा। "
" तो फिर कान किसने काटे तुम्हारे ?" किसना ने बहुत कोतुहल से पूछा।
अब्दुल बोला , " अब वही तो बताने जा रहा हूँ ! मैं बड़े आराम से जा रहा था। गाँव से बाहर आ गया था कि मुझे लगा कोई मेरे पीछे आ रहा है। मुड़ कर देखा तो एक बार तो जड़ सा जमा रह गया वहीँ धरती पर। वह युवती मेरे पीछे आ रही थी। मैंने जल्दी से मुड़ कर अपनी चाल तेज़ कर दी सोच रहा था कि आगे गाँव ख़त्म होता है वहां नदी है , उसमे कूद जाऊंगा तो यह क्या कर लेगी !
मैं बस चलता ही गया और थोड़ी देर में नदी के सामने था। उसमे छलांग लगाने वाला था कि किसी ने मेरे कान पकड़ लिए। कान पकड़ने वाली वही युवती थी जिसके आभूषण मैं चुरा कर ले जा रहा था। उसकी पकड़ मज़बूत थी और बढ़ती ही जा रही थी। मेरे हाथ से थैला छूट कर गिर गया। मैं दर्द से बिलबिला रहा था और मुड़ भी नहीं पा रहा था। मैंने उससे मिन्नते शुरू कर दी कि मुझे छोड़ दे। लेकिन उसने तो कान इतने कस कर पकडे थे जैसे तोड़ ही देगी।
मुझसे अब दर्द सहा नहीं जा रहा तो मैं चीख पड़ा जोर से , ' मुझे छोड़ दो बहन , आज से तू मेरी धर्म की बहन है , मैं वचन देता हूँ कभी भी चोरी नहीं करूँगा। '
सुन कर उसने मेरे कान छोड़ दिए।
लेकिन अब मेरे कान अपनी जगह पर नहीं थे उसकी मुट्ठियों में थे। मेरे दोनों कानो वाले हिस्से से खून की नदी बह निकली। उसने जल्दी से अपनी ओढ़नी से कुछ हिस्सा फाड़ कर मेरे कानो पर बाँधा और मेरी बाजू पकड कर अपने घर की तरफ ले चली। घर ले जा कर मेरा खून साफ़ कर हल्दी का लेप लगाया और मुझे हल्दी वाला गर्म दूध भी पिलाया। मैं दर्द के मारे बेहोश सा हुआ जा रहा था।
उसके बाद उसने अपनी सास को जगाया और सारी बात बताई। भोर होने पर पति के आने पर उसने उसे सारी घटना का विवरण दिया और कहा कि मैं उसका अब धर्म का भाई हूँ और मुझे वह अपने घर पर ही रखेगी जब तक कि मैं ठीक नहीं हो जाता। उसके पति ने हामी भर दी।
ठीक हो जाने के बाद मैंने पुलिस के सामने आत्म समर्पण कर दिया। मैं कई हत्याएं भी की थी। मुझे उम्र कैद की सजा हुई। अब मुझे छह साल हो गए जेल से आये हुए। सजा काटने के बाद मैंने सोच लिया कि चाहे मुझे किसी समय भूखे ही रात-दिन गुजारने पड़े लेकिन मैं अब चोरी नहीं करूँगा। मैं फिर उस बहन से मिलने कभी नहीं गया। लेकिन उसका सबक मेरे लिए नया जीवन बन कर आया।
मैं किसी से बात नहीं करता क्यूंकि मुझे लगता था कि जब लोगों को मालूम पड़ेगा कि मैं चोर और हत्यारा हूँ , जेल में सजा काट कर आया हूँ तो लोग मुझसे नफरत ना करने लगे। प्यार तो मुझे कभी नहीं मिला लेकिन नफरत भी सहन नहीं कर पाता। " कहते हुए अब्दुल का आँखे और गला दोनों भर आये।
" देखो अब्दुल भाई , अब तुम्ही ने तो कहा है कि तुम्हारा नया जीवन है और इसमें तो तुमने कोई बुरा कर्म नहीं किया। इसलिए पुरानी बातें बुरे सपने की तरह भूल जाओ और हम सब के साथ हिल-मिल कर रहो। " किसना ने कहते हुए अब्दुल को गले लगा लिया।
सभी लोग खुश थे। हर एक के मन में ख़ुशी , करुणा और दर्द एक साथ तैर रहे थे।
( चित्र गूगल से साभार )