शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

थप्पड़

  थप्पड़

आज शिक्षक दिवस पर बच्चों ने बहुत सारे कार्यक्रम किये। जिनमें से एक में बच्चों नें हम सभी अध्यापकों के पढाने के तरीके पर अभिनय किया। बहुत हंसी आयी और पता चला कि हम कैसे और किस तरह से बच्चों को पढाते हैं। बच्चे सच में बहुत पारखी नज़र रखते हैं। एक छोटी सी नाटिका भी थी ," थप्पड़ ",जिसमें दिखाया गया था कि बच्चों पर हाथ उठा दिए जाने पर किस तरह से माता-पिता स्कूल में आकर एक शिक्षक को शिकायत करतें है या ज़लील करते हैं।
      इस नाटिका ने मुझे कई बरस पीछे धकेल दिया।  सहसा मेरा हाथ मेरे गाल पर चला गया। मेरी अध्यापिका उषा जी ने भी तो एक दिन मुझे थप्पड़ मारा था , पूरी कक्षा के सामने। ना केवल थप्पड़ ही बल्कि जोर से चिल्लाई भी , कॉपी भी फाड़ डाली थी। मैं ना रोई ना ही कुछ बोल पायी थी। गाल पर हाथ रखे रही अपमानित सी। घर आई तो माँ ने चेहरे पर नज़र डालते ही कहा की आज कुम्हार की थाप पड़ ही गई गीली मिटटी पर।
      माँ भी परेशान थी मेरे गणित में रूचि ना लेने से ,मेरी असुंदर लिखाई से। अध्यापिका जी और माँ के बहुत कहने पर भी सुधार नहीं था मुझमें। मैं तो दिन - रात उषा जी के स्थानांतरण की मन्नतें माँगा करती थी। भोला मन यह नहीं सोचता था की इनकी जगह जो भी आएँगी वह भी तो पढ़ाएगी ही !
       माँ का विचार था कि शिक्षक एक कुम्हार की तरह ही होता है। जैसे कुम्हार गीली मिटटी को थाप कर नया आकर देता है वैसे ही एक शिक्षक भी बच्चे को नए रूप में ढलता है पढ़ा कर तो कभी थप्पड़ भी लगा कर।
      सच में वह थप्पड़ मेरे लिए एक कुम्हार की थाप की तरह ही था। मैंने खुद को बदलने की कोशिश करनी शुरू कर दी और साल-डेढ़ साल बाद सुलेख प्रतियोगिता में मुझे तीसरा पुरस्कार मिला। उषा जी बहुत प्रसन्न थी। तालियों की गड़गड़ाहट में जब मैं पुरस्कार लेने गई तो मुझ में एक नया आत्मविश्वास था।
     तालियां मेरे कानों में गूंज रही थी नेपथ्य में भी और समक्ष भी , समारोह के समापन की घोषणा हो रही थी। मेरे हाथ अब भी गाल पर और आँखे नम थी।
 
उपासना सियाग




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