गुरुवार, 29 अगस्त 2013

खीर में छिपकली ( बाल कहानी )

संध्या हो चली थी। हरि को आज भी कोई काम नहीं  मिला। मज़बूर सा मायूस हो घर की तरफ चल पड़ा। भूख के मारे अंतड़ियाँ कुलबुला कर अंदर की और सिकुड़ने को हो रही थी। घर की तरफ मुड़ते हुए अचानक ठिठक कर रुक गया वह। उसे याद आया कि सुबह जब वह घर से निकला था तो घर में अन्नं का दाना भी नहीं था। घर में  पूंजी ख़त्म  गई थी।   उसकी पत्नी आस -पास के घरों के कपड़े सिल कर कुछ रुपया कमाती थी। उसे भी कई दिनों से कोई  काम नहीं  मिला  था। रात की रोटी को दो हिस्सों में बाँट कर  उसकी पत्नी ने  उनके दोनों बच्चों को खिला  दिया था। और वे दोनों पति -पत्नी पानी पी कर ही संतोष कर के गए।
 हरि घर से संकल्प कर के निकला था कि आज वह कोई काम ढूंढ़ ही रहेगा या मजदूरी ही करेगा जिससे कम से कम आज तो वह बच्चों के पेट में कुछ डाल सकेगा।
खड़ा सोच रहा था कि अब घर  कैसे जाये। हाथ तो अब भी  खाली ही हैं उसके।
     सहसा उसके मन ख्याल आया कि क्यूँ न चोरी ही कर लूँ।  खाली हाथ जाऊंगा तो बच्चों को भूखे रहना पड़ेगा। घर की ओर बढ़ते कदम रोक लिए और चोरी करने का निश्चय कर लिया।
अब वह कोई घर की तलाश में था जिसमे चोरी की जा  सके।  राह में एक मंदिर के आगे से गुजरते हुए  वह सोच रहा था कि  लोग भी कितने झूठ बोलते हैं ' वो नीली छतरी वाला किसी को भी भूखे सोने नहीं देता '. . .  , हुहं ! इतनी तेज़ घण्टियों की  आवाजों में उसे हम मजबूर लोगों की प्रार्थना  या भूख  कहाँ सुनाई देती है। सोचते हुए उसका हाथ  पेट पर चला गया जो कि भूख से  गुड़गुड़ा रहा था निरंतर।
        चलते चलते एक घर के दरवाज़े पर पहुँच गया। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि चोरी जैसा बुरा काम करे । लेकिन कानों में पत्नी की मूक सिसकियाँ और आँखों के आगे वह मजबूर भी महसूस कर रहा था खुद को। दरवाज़ा जरा  खुला था। हरि ने आहिस्ता से दरवाज़े को धकेला तो खुल गया। उसने देखा आँगन है सामने।
यह कहानी उस ज़माने की है जब शहरों में भी खुले आँगन हुआ करते थे।
यह घर शायद किसी सेठ का था।
उसने सोचा कि कोई कीमती सामान दिखेगा , उठा लूँगा।  उसे बेच कर बच्चों के लिए भोजन ले जाऊंगा।
       हरी ने देखा ,आंगन में कोई नहीं था। मधुर घंटियों की आवाज़ उसके कानो में पड़ रही थी। संध्या का समय था तो घर के लोग शायद पूजा कर रहे थे। धूप की सुवासित खुशबु  के साथ -साथ हरी के नाक को घर की रसोई से बनते भोजन की महक भी छू रही थी। उसके मुहं में पानी भर आया।
     तभी कुछ खटका सा हुआ और हरी भयभीत हो कर आँगन में दरवाज़े के पास  ही बनी सीढ़ियों पर चढ़ गया। अगले ही पल वह घर की छत पर था। हरि की साँसे तेज़ चल रही थी। बहुत घबरा गया था वह।  कुछ देर बाद संयत होने के बाद इधर-उधर झाँका तो पाया कि  खुली छत है और आँगन पर बहुत बड़ा जाल है। वह जाल से नीचे आँगन में झाँकने लगा।
  बहुत बड़ा आँगन था। एक तरफ कुछ कुर्सियां रखी थी और साथ में ही एक दीवान रखा था। तरह -तरह के फूलों के गमले थे।  परिवार में कौन था , कितने लोग थे , हरी को समझ नहीं आ रहा था।  तभी दरवाजे पर गाड़ी रुकने की आवाज़ आयी।  गाड़ी का ड्राइवर कुछ थैले अंदर लाया और आँगन में कुर्सियों के पास रखे मेज़ पर रख गया।  उसके पीछे ही सेठ जी आ गए। उनके दोनों हाथों में भी थैले थे। सहसा हरि का ध्यान अपने दोनों हाथों की तरफ चला गया। सोचने लगा कि क्या हाथों -हाथों में  इतना फर्क होता है। उसके हाथ तो सदैव खाली  ही रहते हैं।
" कलावती !" सेठ जी ने पुकारा तो हरि अपनी सोच से बाहर आ गया।
कलावती सेठ  जी की पत्नी थी।  थोड़ी देर में अपनी मंथर चाल से चलती हुई सेठ जी के पास वह  कुर्सी पर आ बैठ गयी। हरि  को तो वह गहनों की चलती फिरती दुकान सी नज़र आ रही थी। उसे अपनी पत्नी की कलाईयाँ और सूना गला याद आ गया।  हूक सी उठी मन में उसके।
      सेठ जी अपनी पत्नी को  थैले में से रूपयों का बैग  निकाल कर थमा रहे थे कि वह उन रुपयों को तिजोरी में  दे।  दूसरे थैले में बच्चों के लिए कुछ सामान था। हरि फिर सोचने लगा कि एक तरफ तो सेठ की पत्नी है और बच्चों के लिए  खाने और खेलने का सामान है और दूसरी तरफ उसके बच्चों को एक वक्त की रोटी  भी नहीं। क्या वह मेहनत नहीं करता ! क्या  उसकी पत्नी सिलाई करके पैसे नहीं कमाती ! तो क्या यह किस्मत का फेर है ! पता नहीं क्या है ? एक ठंडी सी सांस भर कर बैठ गया। आसमान की तरफ देख कर सोच रहा था।
      उसका मन ही नहीं मान रहा था कि वह चोरी करे। उसे मालूम था ,वह एक न एक दिन पकड़ा जायेगा। उस दिन का सोच कर वह सहमा  था। क्या तब उसके बच्चों को चोर के बच्चे नहीं कहेंगे लोग ? अब क्या करे , क्या ना करे दुविधा में था हरि।  तभी उसके दिमाग में एक विचार आया कि सिर्फ आज ही चोरी करेगा और जो भी धन मिलेगा उसे लेकर वह पत्नी-बच्चों को लेकर किसी दूसरे शहर चला जाएगा। अपना कोई काम शुरू करेगा।
   तभी आँगन में शोर सा हुआ तो वह चौंक कर सिकुड़ कर बैठ कर आंगन में देखने लगा। आठ से दस बरस के तीन -चार छोटे बच्चे थे। सभी बच्चे ,सेठ जी ,जो कि उनके दादा थे , जो  खिलोने ले कर आये थे उनको देख कर खुश हो रहे थे ,खेल रहे थे।
 " अरे हटो सभी  ! नहीं तो गर्म लग जायेगा।  देखो मेरे हाथ में खीर का बर्तन है। " कहते हुए एक औरत ( वह शायद सेठ जी के बेटे की बहू  होगी )लगभग तेज़ चाल चलती हुई खीर के बर्तन को आँगन में रख दिया। बर्तन के ठीक उपर पंखा था। उसने पंखा चालू कर दिया। बच्चे दीवान और कुर्सियों पर बैठ कर खेलने लगे।
   तभी हरि ने जो देखा वह बुरी तरह चौंक गया। जो औरत खीर रखने आई थी उसने पंखा तो चला दिया लेकिन यह नहीं देखा की पंखे से लटकी हुई एक छिपकली खीर में गिर गई है। वह सोचने लगा कि ऐसे तो सभी मर जायेंगे जब यह खीर खायेंगे। सहसा उसके मन में एक शैतानी विचार आया कि यह तो बहुत अच्छी  बात है। सभी मर जायेंगे तो वह अपना काम यानी चोरी आसानी से कर सकेगा। किसी को पता भी नहीं चलेगा। उसे एक ख़ुशी का सा अहसास हो रहा था। वह अब बेसब्री से समय का इंतज़ार करता हुआ आँगन में झाँक रहा था।
     धीरे -धीरे करके घर के सभी सदस्य आँगन में जमा होते जा रहे थे। सेठ जी , उनके तीन बेटे , उनकी पत्नी और सभी पोते-पोती आ चुके थे। हलकी फुलकी बातें हो रही थी। किसी बात पर हंसी मजाक हो रहा था। लेकिन यह समय हरि पर बहुत भारी गुज़र रहा था। वह सोच रहा था कि कब भोजन  खायेंगे ये लोग और कब वह अपना काम निपटायेगा।
    अब  सभी आँगन में  लगे आसनों पर बैठ गए और भोजन करने लगे। फिर  बारी खीर की आई तो बड़ी बहू खीर परोसने  हुई।
     हरि के दिल की धड़कने बढ़ गई। वह  सोच रहा था कि उसे क्या करना चाहिए। कहीं   वह इतने लोगों की मौत का कारण तो नहीं बनने जा रहा। क्यूंकि उसे ही मालूम था कि खीर जहरीली हो चुकी है।
         यह जो हमारा मन होता है , इसमें अच्छे और बुरे विचार दोनों ही होते हैं। दुविधा के क्षण में ये संघर्ष करने लगते हैं। यही स्थिति अब हरि की थी। उसका मन कह रहा था कि उसे ऐसा धन नहीं चाहिए जो मासूमों की लाशों पर से गुजर कर मिले। आखिर अच्छे विचार ही जीते।
 वह जोर से चिल्ला पड़ा। " यह खीर मत खाओ , इसमें जहर है। "
सभी चौकं गए।  यह तो स्वभाविक ही था चौंक जाना सभी का। सेठ जी का बड़ा बेटा जोर से बोला , " कौन है उपर ! नीचे आओ !"
कह कर सीढ़ियों की तरफ लपका। तब तक हरि  आँगन में पहुँच चुका था। वह बहुत डरा हुआ था। कांप भी रहा था। उसने सेठ जी को बात बता दी कि वह यहाँ क्यूँ और क्या करने आया था। सेठ जी ने उसे आगे बढ़ कर सांत्वना दी और  कहा , " देखो तुमने जो सोचा था वह  गलत इरादा था लेकिन क्यूंकि तुम कोई चोर भी नहीं हो अच्छे  इन्सान हो। इसलिए मैंने तुम्हे माफ़ किया। तुम जा सकते हो।  हां ! अगर मेहनत करके काम करना चाहते हो तो मैं तुम्हे काम दे सकता हूँ। क्यूंकि मुझे तुम जैसे ईमानदार इन्सान की जरूरत है। "
     हरी को और क्या चाहिए था।  वह बहुत आभारी था सेठ जी का। सेठ जी ने उसे घर के लिए भोजन देने को कहा और अगले दिन काम पर आने का कह दिया।
      हरि अब ख़ुशी -ख़ुशी अपने घर की तरफ जा रहा था। घर पर पत्नी और बच्चे चिंता ग्रस्त थे और अनजानी आशंकाओं से घिरे थे।  जब उसने सारी घटना की जानकारी दी तो सभी प्रसन्न हुए और ईश्वर को भी धन्यवाद दिया।  हरि उस छिपकली के प्रति भी अपने आप को कृतज्ञ  महसूस कर रहा था , जिसने मर कर उसे सही राह दिखाई।






बुधवार, 14 अगस्त 2013

बहन की सीख ( बाल कहानी )

    यह कहानी बहुत पुरानी  है।  लगभग ५० साल पुरानी  तो होगी ही शायद। एक शहर में अब्दुल नाम का एक आदमी रहता था। उम्र कोई ५० - ५५ वर्ष। दिन -रात मेहनत मजदूरी करता था।  कमाने का कोई स्थाई जरिया नहीं था ।  कभी कहीं अनाज ढो दिया तो कभी किसी इमारत के निर्माण कार्य में मजदूरी करने लग जाता।
      एक बार ,एक बहुत बड़ी इमारत का निर्माण होना था।  अब्दुल भी  वहां  काम पर लग गया। वहां सभी मजदूरों के रहने की अस्थायी व्यवस्था की गयी थी। लगभग सभी मजदूर अपने परिवार वालों को ले आये थे। लेकिन अब्दुल का कोई परिवार था भी या नहीं कौन जाने !
  वह किसी से  जरूरत भर ही बात करता और अपने काम लग जाता।  सभी सोचते की यह इतना चुप क्यूँ रहता है।  शाम को सभी इक्कठे हो कर बातें करते हैं तो यह दूर -दूर ही क्यूँ रहता है।  बोलता ही  नहीं जाने यह घमंडी है या कोई गम लिए घूमता है।
और अब्दुल  …!  वह तो बस अपनी ही दुनिया में मग्न रहता , दीन -दुनिया से बेखबर।
    ऐसे ही दिन बीते जा रहे थे।
एक दिन बहुत गर्मी थी। मौसम बारिश का था तो बहुत उमस हो रही थी।  अब उस ज़माने में कोई पंखे तो होते नहीं थे जो बटन दबाया और चल पड़ते।लाईट भी नहीं थी हर जगह।  हर कोई आसमान की तरफ देखते हुए हाथों में हाथों वाला पंखा झुला  रहे थे। तभी किसना की नज़र अब्दुल पर पड़ी और देख कर वह हैरान रह गया कि आज अब्दुल ने सर पर बंधा गमछा उतार  रखा है और उससे अपना पसीना पौंछ रहा है।
  इसमें हैरानी की क्या बात थी। गर्मी तो अब्दुल को भी लगेगी ही , वह भी इन्सान ही तो है !  मगर हैरानी वाली बात तो थी कि कभी भी सर से गमछा ना उतारने वाला अब्दुल आज नंगे सर बैठा है।
 हां तो क्या हुआ  …. !
लेकिन बात तो हैरानी वाली ही थी।  किसना ने रमलू को धीरे से अब्दुल की और इशारा किया तो रामलू के मुख से तो हैरानी भरी चीख जैसे निकल गयी। अब सभी का ध्यान अब्दुल की तरफ था। और उसे घेर कर खड़े हो गए।
किसना बोल पड़ा , " अरे अब्दुल भाई ! यह आपके कानों  को क्या हुआ ? आपके तो दोनों कान ही नहीं है ऐसे कैसे है ? क्या ये जन्म से ही नहीं है  ?"
सवाल तो किसना ने पूछा था लेकिन सभी जानना चाहते थे की उसके कान क्यूँ नहीं है , कान वाली जगह सिर्फ छेद  ही है। क्या कोई हादसा हुआ था उसके साथ !
 अब्दुल ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की और शांत आवाज़ में बोला ," ये मेरे कान मेरी बहन ने तोड़ दिए थे। "
" बहन ने कान तोड़ दिए ? मगर क्यूँ  ? बहन ऐसा क्यूँ करेगी ? तुमने ऐसा क्या किया था ?" सतबीर ने हैरानी से पूछा।
" अच्छा बताता हूँ , तुम सब लोग आराम से बैठो। " अब्दुल ने एक ऊँची जगह बैठते हुए कहा।
सभी लोग अब अब्दुल को घेर कर बैठे थे कि  आखिर यह कानो का रहस्य क्या है ? क्या कोई बहन इतनी निर्दयी भी हो सकती है जो अपने भाई के कान काट डाले ?
अब्दुल धीरे से बोला , " मैं कहाँ जन्मा , कौन मेरे माँ -बाप है , क्या पता ठिकाना है ?मुझे नहीं मालूम।क्या मेरा धर्म है यह नाम ही जाने किसने रख दिया था ! "
" तो यह बहन कहाँ  से आयी ? " रमलू  बोल पड़ा।
" वह मेरे धर्म की बहन थी। एक वीर हिन्दू स्त्री , जिसने मुझे एक अच्छा इन्सान बनाने में सहायता की। "
वो कैसे भला , यह सभी के मन में प्रश्न था।  सभी के चेहरों को भांप कर अब्दुल आगे बोला।
" मेरा कोई भी घर नहीं था तो रहने का ठिकाना भी नहीं था।  इधर -उधर की ठोकरों ने मुझे गलत संगत में डाल दिया। मैं चोर बन बैठा।  चोर भी पक्का कि कोई पकड़ ही ना सके।  इतनी सफाई से अपना काम करता ,कोई सुराग भी नहीं छोड़ता था। दिन में भिखारी का रूप धारण कर के घरों की टोह लेता और रात को मौका पा कर चोरी कर देता।
   कुछ दिन चोरी के धन पर ऐश करता और फिर से नए ठिकाने की ओर चल पड़ता।  घर बसाने  को कभी सोचा ही नहीं। ऐसे ही एक बार मैं एक गाँव में भिखारी बन कर गया और एक घर के दरवाज़े पर गया और देखने लगा की वहां क्या हो रहा है और क्या बात हो रही है टोह लेने लगा।
    मुझे उनकी बातों  से अंदाज़ा हो गया था  कि उस घर में सिर्फ तीन लोग ही हैं। एक अधेड़ स्त्री जो  माँ थी उस पुरुष की, जो उससे बतिया रहा था। पास ही आँगन में एक नवविवाहिता स्त्री भी दिखाई दी जो उस युवक की पत्नी होगी। मैंने अनजान सा बनते  हुए उन माँ -बेटे की बातों पर कान लगा लिए। वह कह रहा था कि वह रात को खेतों पर ही रह जायेगा , भोर होने पर ही आ पायेगा।
       तभी मेरी नज़र उसकी पत्नी पर पड़ी जिसने सोना  और चांदी के बने गहने पहन रखे थे। घुटनों से ले कर टखनो तक चांदी ही चांदी और सर पर , गले में और हाथों में जैसे सोने की खान ही ले कर चल रही हो।   मैंने सोचा कि यही अच्छा मौका है।यहाँ  चोरी कर लूँगा तो  फिर कई महीनों तक चोरी नहीं करनी पड़ेगी।
वहां से भीख तो ले ली। रात के इंतजार में  गाँव के बाहर एक मंदिर था उसी में बैठ गया।
संध्या  होते ही उसी घर में मैं अँधेरे का फायदा उठा कर घर में एक कमरे में छुप गया। रात होने का इंतजार करने लगा।
       घर का काम शायद ख़त्म हो गया था क्यूंकि आंगन से आती बर्तनों की खटपट बंद हो चुकी थी। तभी कमरे में आहट  हुई  और रोशनी भी।  मैं एक बड़े से सन्दुक की ओट में एक चारपाई के नीचे छुपा हुआ था। दीपक की हल्की  रोशनी में मुझे पैर नज़र आए तो मेरी ख़ुशी का  पारावार ही ना रहा।  ये पैर तो उसी नवयुवती के थे जिसने सोना और चांदी के आभूषण धारण किये हुए थे।शायद यह उसी का कमरा था। मेरा दिल ख़ुशी से भर गया कि आज तो ऊपर वाला बहुत मेहरबान है।
          दीपक एक जगह रख कर   उसने अपने जेवर उतारने शुरू किये और  चारपाई के  चारों पायों में टांग दिए। मुझे और भी ज्यादा ख़ुशी हुई कि मेरा काम तो और भी आसान हो गया। अगर जाग भी गयी तो क्या हुआ , दो मुट्ठी हड्डियाँ ही तो है यह , मार दूंगा ! हत्या करना मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
       अब मैं उसके सोने का इंतजार कर रहा था।  वह दीपक की लौ  धीमी करके लेट चुकी थी। कुछ  देर बाद जब मैं आश्वस्त हो गया की वह सो चुकी है तो धीरे से चारपाई के नीचे से बाहर आया और अपने थैले में उसके सारे गहने डाल  लिए, चल पड़ा। वह एक बार भी नहीं हिली।
मैं घर से बाहर आ गया और सडक की तरफ चल पड़ा। "
" तो फिर कान किसने काटे तुम्हारे ?" किसना ने बहुत कोतुहल से पूछा।
     अब्दुल बोला , " अब वही तो बताने जा रहा हूँ ! मैं बड़े आराम से जा रहा था।  गाँव से बाहर आ गया था कि  मुझे लगा कोई मेरे पीछे आ रहा है। मुड़  कर देखा तो एक बार तो जड़ सा जमा रह गया वहीँ धरती पर। वह युवती मेरे पीछे आ रही थी। मैंने जल्दी से मुड़ कर अपनी चाल  तेज़ कर दी सोच रहा था कि आगे गाँव ख़त्म होता है वहां नदी है , उसमे कूद जाऊंगा तो यह क्या कर लेगी !
        मैं बस चलता ही गया और थोड़ी देर में नदी के सामने था।  उसमे छलांग लगाने वाला था कि किसी ने मेरे कान पकड़ लिए। कान  पकड़ने वाली  वही युवती थी जिसके आभूषण मैं चुरा कर ले जा रहा था। उसकी पकड़  मज़बूत थी और बढ़ती ही जा रही थी। मेरे हाथ से थैला छूट कर गिर गया। मैं दर्द से बिलबिला रहा था और मुड़ भी नहीं पा रहा था। मैंने उससे मिन्नते शुरू कर दी कि मुझे छोड़ दे। लेकिन उसने तो  कान इतने कस कर पकडे थे जैसे तोड़ ही देगी।
मुझसे अब दर्द सहा नहीं  जा रहा तो मैं चीख पड़ा जोर से , ' मुझे छोड़ दो बहन , आज से तू मेरी धर्म की बहन है , मैं वचन देता हूँ कभी भी चोरी नहीं  करूँगा। '
सुन कर उसने मेरे कान छोड़ दिए।
लेकिन अब मेरे कान अपनी जगह पर नहीं थे उसकी मुट्ठियों में थे। मेरे दोनों कानो वाले हिस्से से खून  की नदी बह निकली। उसने जल्दी से अपनी ओढ़नी से कुछ हिस्सा फाड़ कर मेरे कानो पर बाँधा और मेरी बाजू पकड कर अपने घर की तरफ ले चली। घर ले जा कर मेरा खून साफ़ कर हल्दी का लेप लगाया और  मुझे हल्दी वाला गर्म दूध भी पिलाया।  मैं दर्द के मारे बेहोश सा हुआ जा रहा था।
          उसके बाद उसने अपनी सास को जगाया और सारी बात बताई। भोर होने पर पति के आने पर उसने उसे सारी  घटना का विवरण दिया और कहा कि मैं उसका अब धर्म का भाई  हूँ और मुझे वह अपने घर पर ही रखेगी जब तक कि  मैं ठीक नहीं हो जाता। उसके पति ने हामी भर  दी।
        ठीक हो जाने के बाद मैंने पुलिस के सामने आत्म समर्पण कर दिया।  मैं कई हत्याएं भी की थी। मुझे उम्र कैद की सजा हुई। अब मुझे छह साल हो गए जेल से आये हुए। सजा काटने के बाद मैंने सोच लिया कि चाहे मुझे किसी समय भूखे ही  रात-दिन गुजारने पड़े लेकिन मैं अब चोरी नहीं करूँगा।  मैं फिर  उस बहन से मिलने कभी नहीं गया। लेकिन उसका सबक मेरे लिए नया जीवन बन कर आया।
   मैं किसी से बात नहीं करता क्यूंकि मुझे लगता था कि जब लोगों को मालूम पड़ेगा कि मैं चोर और हत्यारा हूँ , जेल में सजा काट कर आया हूँ तो लोग मुझसे नफरत ना करने लगे। प्यार तो मुझे कभी नहीं मिला लेकिन नफरत भी सहन नहीं कर पाता। " कहते हुए अब्दुल का आँखे और गला दोनों भर आये।
" देखो अब्दुल भाई , अब तुम्ही ने तो कहा है कि  तुम्हारा नया जीवन है और इसमें तो तुमने कोई बुरा कर्म नहीं किया।  इसलिए पुरानी बातें बुरे सपने की तरह भूल जाओ और हम सब के साथ हिल-मिल कर रहो।  " किसना ने कहते हुए अब्दुल को गले लगा लिया।
सभी लोग खुश थे।  हर एक के मन में ख़ुशी , करुणा और दर्द एक साथ तैर रहे थे।

( चित्र गूगल  से साभार )